Wednesday, November 5, 2014

मैं, तुम और हम

26 मई की कुछ भूली बिसरी याद 


जीवन से लड़ते-लड़ते
बीत चुके हैं कई दिन महीने साल
जीवन के इस कुरक्षेत्र में लड़ते लड़ते
खत्म हो चुके हैं मेरे तरकश के तीर
टूट चुकी है मेरी तलवार
टूट चूका है कवच
अपना अंतिम प्रहार भी कर चूका मैं
नयनो से अश्रु और देह से रक्त की धार निकल रही है
,अभिमन्यु की मानिंद उठा लिया है पहिया
इस समर का चक्रव्यूह भेदने
और अंजाम सोचे बिना कूद पड़ा हूँ रण में
इन सबके बीच सोचता हूँ की
कहाँ है वो कृष्ण जिसने मुझे
बिना कुछ सोचे समझे युद्ध में कूद जाने की सलाह दी थी
आत्मविवेचन किया तो पाया की कोई कृष्ण
तो था ही नहीं वो बस “मैं” और “तुम” को “हम” बनाने की चाह में
सबकुछ हारता हुआ देख रहा हूँ
और बारिश में सिगरेट हाथ में लिए
शून्यता में रमे आकाश को निहारते हुए
मैं खोजता हूँ खुद को
अकेले इस जीवन को
अपने समूचे अस्तित्व को खोते हुए
तुम्हारे बिना जीते हुए
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

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