अडिग खड़ा हूँ किसी तरह जीवन के झंझावातो में,
जैसे अविचल खड़ी हो पाषाण शिला भारी वेग प्रपातो में,
असहाय, उलझा इस अंत रहित क्रम में ना हँस सकता ना रो पाता,
काश मैं बाग़ी हो पाता ll
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जैसे बच निकला हो प्यासा मृग शावक आखेटक के प्रहार से l
मृगतृष्णा बन जाये पोखर निज प्रतिकूल भाग्य के वार से l
जीवन में बढ़ता जाता आगे, कुछ सोच, बाद में कतराता,
काश मैं बाग़ी हो पाता ।
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सोचा करता बैठ अकेले.
कल आऐगा खुशियां लेके,
ऊर्जा नयी दे जाएगा जीवंत मुझे कर जाएगा,
किंतु हर बार भाग्य मैं मेरे संघर्ष ही है क्यो आता l
काश मैं बाग़ी हो पाता ।
भीड़ में अपनी जगह बनता एक सामान्य आदमी, भीड़ में हस्तक्षेप करती एक आवाज़, मेरा हस्तक्षेप, महज हस्तक्षेप नहीं समाज की रूड़ीवादिताओं से रूठ जाने की खीज है. मैं अभिषेक तिवारी, IIT Bombay से स्नातक और परास्नातक, इलाहबाद उत्तर प्रदेश का रहने वाला, माँ और नौकरशाही का धुर समर्थक और "जग भ्रान्ति भरा मैं क्रांति भरा, जग से कैसी समता मेरी" पे चलने वाला
Tuesday, February 10, 2015
काश मैं बागी हो पाता
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