Tuesday, February 10, 2015

काश मैं बागी हो पाता

अडिग खड़ा हूँ किसी तरह जीवन के झंझावातो में,
जैसे अविचल खड़ी हो पाषाण शिला भारी वेग प्रपातो में,
असहाय, उलझा इस अंत रहित क्रम में ना हँस सकता ना रो पाता,
काश मैं बाग़ी हो पाता ll
.
जैसे बच निकला हो प्यासा मृग शावक आखेटक के प्रहार से l
मृगतृष्णा बन जाये पोखर निज प्रतिकूल भाग्य के वार से l
जीवन में बढ़ता जाता आगे, कुछ सोच, बाद में कतराता,
काश मैं बाग़ी हो पाता ।
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सोचा करता बैठ अकेले.
कल आऐगा खुशियां लेके,
ऊर्जा नयी दे जाएगा जीवंत मुझे कर जाएगा,
किंतु हर बार भाग्य मैं मेरे संघर्ष ही है क्यो आता l
काश मैं बाग़ी हो पाता ।

Wednesday, November 12, 2014

दउर सुरू हो जाला

दउर सुरू हो जाला


सरेख मन से
गते-गते सँसरे में
करेज कसकेला।
बउराइल अकुलाहट
उफनात
जिदिआ के
दउर लगावे में
इचिको ना थथमे।
फरीछ होते
जुड़ाइल
किरिन संगे चुप्पी सधले
सोना नियर दिन में
दउर सुरू हो जाला।
दूरी नापत
गहिर चाल से, धीरज बन्हले
नया बसेरा खोजत
जोत जगावत
दरद पी के
मन मुसक उठेला।
एही जिनगी के
निखरल खुलल दरपन बनेला
तबे नू
सरेख मन से।
गते-गते सँसरे में
करेज कसकेला।

Saturday, November 8, 2014

तुम्हारे नाम के सिवा

क्लास के उस पिछली बेंच पर  तुम्हारा नाम लिख कर  तोडा करता था मैं अपनी कलम  और उमीदों के काफिलो से गुजारिश करता  की पास आके तुम कहोगी  "Take My Pen"  पर उम्मीदे भी मेरी कलम की तरह रोज टूटती रही और मैं कभी कुछ ना लिख पाया तुम्हारे नाम के सिवा

मुझे शायरी का शौक नहीं था

मुझे शायरी का शौक नहीं था, ये कालेज के बाद मुह के भाप से कांच साफ़ करने कि रिवायत है, और अब भी मिज़ाज़ों वाले पंक्तियाँ पढ़ने का शौक-चस्का-लत-तलब ऐसा ही है जैसे सिगरेट के आखिरी काश का.
मुझे शायरी कि बिलकुल समझ नहीं लेकिन es सालों बरसों में इस तलब चस्के ने सहेज संवार के जीना जरुर सिखा दिया है, मैं एकाकीपन में भी ढेरों रंग भर लेता हूँ, पंक्तिया मेरे लिए उद्गम वेग हैं, शायरी पढ़ना ऐसा है जैसे मेरे बचपन के दिनों कि हैंडराइटिंग, मैं थामना रुकना नहीं चाहता, मैं हर दिन अपनी जिंदगी के गिनता रहता हूँ, हाइवे किनारे गाडी कड़ी करके, कच्चे रास्तों पर दूर तक चिड़ियों का पीछा करता रहता हूँ, चींटियों कि बस्ती मोहल्ले को बनते संवारते देखता हूँ, छुट्टियों के दिन पेड़ों पर चिड़ियों कि आवाज़ पहचानता रहता हूँ, कोहरे में तस्वीर बनता रहता हूँ, कभी उम्र तो कभी कपडे तो कभी चेहरे कि mamle में gaccha kha जाता हूँ, तस्वीर अब तक तो बनी नहीं है, लेकिन haan कोहरे में हाथ और आँख अक्सर भीग जाया करते हैं लेकिन सुकून कि बात है कि हाथ और आँख कि dosti नहीं टूटती, आँख पूछने हाथ जरुर जाता है, दोस्त हमेशा साथ ही रहते हैं हमहि नै पहचान पते 

दुबारी के कोनों में तेरी मेरी सांस घुले

जैसे बारिश का पानी धीरे धीरे मिटटी में घुले,
लाल सूरज डूबते हुए धरती से मिले,
पुरवाई हवा से नीम का पेड़ हिले,
कांटो के बीच कोई गुलाब खिले,
जब बढ़ जायें तेरे मेरे दरम्यान गिले
दुबारी के कोनों में तेरी मेरी सांस घुले

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

एक क्रन्तिकारी की जेल डायरी से साभार 

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग से निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी निश्छलता को आँका,
जग भ्राँति भरा, मैं क्राँति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदु-गान दिए,
व्यवहार-कुशल जग में कवि के
वरदान किसी कब याद रहे,
शशि को दी रजत-निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुरुता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

किस रवि की स्वर्णिम-किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे, मैं मौन रहा, जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

~~ जयप्रकाश नारायण 

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ... उस से आँखें लगीं तो ख्वाब कहाँ

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख्वाब कहाँ
बात प्रेम पर हो रही थी कि प्रेम क्या है? What does one do when in love? और शायरों और कवियों का तो आपको पता ही है कि सूरज मद्धम कर देते हैं और चाँद में आग लगा देते हैं। जबकि ऐसा होता नहीं।
बात का नतीजा ये था कि प्रेम में व्यक्ति ख़ुश रहता है, फ़िक्रमंद नहीं होता वो। प्रेम बाहर से जंक फ़ूड ख़रीद कर लाता है और प्रेम सोफ़े पर बैठकर घंटों बेबात की बात करता है। प्रेम दिन में डिनर करता है और रात को टीवी देखता है। टीवी पर क्या देखता है ये ग़ैरज़रूरी है, टीवी का चलना और अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में हमला कर दिया इन सब से बेख़बर होता है प्रेम। लेकिन प्रेम संवेदना नहीं खोता। प्रेम आतंकवाद की ख़बर शायद न पढ़ता हो पर पता चलने पर दुःखी ज़रूर होता है।
प्रेम क्लास भी करता है, वो सारे इवेंट का हिस्सा भी होता है और प्रेम दिन भर थकता भी है। और शाम को प्रेम तुम्हारे दोस्तों के साथ हँसी मज़ाक़ भी करता है। प्रेम प्रेम भी करता है, स्नेहिल स्पर्श और मीठा चुंबन भी देता है। प्रेम में प्रेम पहली चीज नहीं होती। प्रेम साथ होना है, प्रेम बातें करना है और प्रेम रात के एक बजे हेलमेट लेकर खड़ा होना भी है, "चलो बाहर चलो, कहीं घूमने चलते हैं!"
प्रेम को मतलब नहीं होता कि वो जगह कौन सी है। कभी प्रेम बाईक पर आगे होता है, कभी पीछे। प्रेम कानों में गुनगुनाता है और ओंठों को हेलमेट के क़रीब लाकर कहता है, "इंडिया गेट चलो!" लेकिन रास्ते में कहता है, "मुझे निज़ामुद्दीन में पराठे खाने है।" प्रेम चौंकाता है, प्रेम थकाता है पर थकता नहीं।
प्रेम डाँटता भी है, डाँट खाता भी है, छुपता भी है, छुपाता भी है, डरता भी है और भाई से पंगे भी लेता है। प्रेम पवित्र है। प्रेम न नमाज अदा करता है ना घंटियाँ बजाता है। प्रेम नमाज भी अदा करता है और घंटियाँ भी बजाता है। प्रेम के लिए भौतिक चीजें गौण हैं और अदृश्य चीजों का आकार है। प्रेम छिपाता है प्रेम से, प्रेम बताता है प्रेम से। प्रेम हँसता है, प्रेम रोता है। प्रेम जटिल है, प्रेम सरल है। प्रेम ठोस की तरह अडिग और पानी जैसे बहाव वाला, तरल है।
मीर कहते हैं कि प्रेम में इंतज़ार करना नहीं आता, प्रेम सोता हुआ भी जगता रहता है। प्रेम में जो घटित होता है वही स्वप्न है। प्रेम स्वप्न का अगला पड़ाव है और प्रेम सपने से ज्यादा हसीं और वास्तविकता से ज्यादा खूबसूरत है।