Saturday, November 8, 2014

मुझे शायरी का शौक नहीं था

मुझे शायरी का शौक नहीं था, ये कालेज के बाद मुह के भाप से कांच साफ़ करने कि रिवायत है, और अब भी मिज़ाज़ों वाले पंक्तियाँ पढ़ने का शौक-चस्का-लत-तलब ऐसा ही है जैसे सिगरेट के आखिरी काश का.
मुझे शायरी कि बिलकुल समझ नहीं लेकिन es सालों बरसों में इस तलब चस्के ने सहेज संवार के जीना जरुर सिखा दिया है, मैं एकाकीपन में भी ढेरों रंग भर लेता हूँ, पंक्तिया मेरे लिए उद्गम वेग हैं, शायरी पढ़ना ऐसा है जैसे मेरे बचपन के दिनों कि हैंडराइटिंग, मैं थामना रुकना नहीं चाहता, मैं हर दिन अपनी जिंदगी के गिनता रहता हूँ, हाइवे किनारे गाडी कड़ी करके, कच्चे रास्तों पर दूर तक चिड़ियों का पीछा करता रहता हूँ, चींटियों कि बस्ती मोहल्ले को बनते संवारते देखता हूँ, छुट्टियों के दिन पेड़ों पर चिड़ियों कि आवाज़ पहचानता रहता हूँ, कोहरे में तस्वीर बनता रहता हूँ, कभी उम्र तो कभी कपडे तो कभी चेहरे कि mamle में gaccha kha जाता हूँ, तस्वीर अब तक तो बनी नहीं है, लेकिन haan कोहरे में हाथ और आँख अक्सर भीग जाया करते हैं लेकिन सुकून कि बात है कि हाथ और आँख कि dosti नहीं टूटती, आँख पूछने हाथ जरुर जाता है, दोस्त हमेशा साथ ही रहते हैं हमहि नै पहचान पते 

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