अरसा बीत गया सुने आम की सबसे निचली डाली पर बैठी कोयल की कूक,
जान बूझकर चलता रहा नाक की सीध में,
जैसे कुछ न देखने की खब्त सवार हो। न देखा आयें-बायें-दायें, बस चलता रहा सीधे, न देखा पलट कर किसी को, की शायद फिर किसी से बात हुई और अपनेपन के साथ कहीं फिर साथ न छूट जाये
जमीन में फैले इस कचरे के खजाने को, जिसे रौंदते हुए अभी मेरे पाँव गुजरे हैं, जो कभी तुम्हारी इक झलक के लिये हर पल रुका करते थे, आज बेतरतीब बढ़े जा रहे हैं, की रुकना भभी चाहा तो भी रुक न पाया, इन पाँवों को भी अब ठोकर मंजूर नहीं।
सच है अरसा बीत गया आसमान को उसके अगम ऊँचाइयों के साथ देखे और अपनी शून्यता में रमी गहन गहराइयाँ नापे,
बहूत दिनों तक टहला वीरान बाज़ार में जैसे अपने को भरमा रहा हूँ, बहूत दिनों से अपने आप से भी बात नहीं की, की फीर से कहीं “मेरे” अन्दर जो “तेरा” बाकी है उस्से मुलाकात न हो जाये।
इक जूनून सा सवार है कुछ न देखने का ,
नहीं बचाया “मैं” के लिए ज़रा सा भी वक्त जबकि मेरा “मैं” मुझसे मिलकर “उसके” बारे में बतियाना चाहता है।
अकेलापन होना अलग है और अकेले, परीवेश से अपने को पृथक कर लेना अलग, एक में टूटता विश्वास होता है और एक में अपने वजूद को बचाने की ज़िद और ज़िन्दगी के कुछ अनसुलझे सवालों की कुंठा, और ये अकेले रहने की ज़िद कुछ भी करवा सकती है, एैसा मानता था मैं (जबतक)
लेकिन आज मेरी ज़िद के इतने दिनों बाद, तड़के 4 बजे दबोच लिया गया मुझे उनकी यादों के एक भगोड़े अपराधी की तरह। जबकि मैं था निहत्था, अकेला और गलती से जाग गया था इतनी सुबह, भूल गया था की उसकी याद से ही तो जागा हूँ, और इस क्षण मेरी ज़िद का सहारा भी नहीं है मेरे पास, ये मेरा कमजोर क्षण था जहाँ मैं बिलकुल अकेला और असहाय था “उनकी” याद में।
ये मेरा “वो” भाग था जो मेरे “अब” से शायद अब भी मज़बूत है अन्दर कहीं और मेरी नइ नवेली ज़िद को ठेंगा दिखा के अब भी शेष बच गया है। उस “वो” को भूलने की चाह में ये “अब” का संघर्ष है ये शायद, खैर •••
इतनी तड़के की जबकि कोई काम नहीं होता, मैं बिस्तर पर बैठा हतप्रभ सा देख रहा था कमरे की छत को, जिसमें पुराने कुछ बेहतरीन पल अपने, सिनेमा के परदे की तरह छत पर चल रहे थे, और मैं यादों के कुँए में झाँक रहा था गहराई से, शायद बहुत नीचे उतर गया है पानी, आज तो सारी डोरीयाँ कम पड़ रही हैं और अब जब जागते हुए सुबह के 6 बज रहे हैं, एैसा लगता है कि बचपन की टाफी और कुलफी वाली क्षणिक ज़िद से ज्यादा मज़बूत नहीं है मेरी ये “वो” को भूला देने की “अब” की ज़िद।
लगता है आज बहुत दिनों बाद लौट आया हूँ बाज़ार से घर।
बहुत दिनों बाद कर रहा हूँ “मैं” से बातचीत
बहुत दिनों बाद लगी है मर्मान्तक सी प्यास
आज बहुत दिनों बाद आयी है “उनकी” इतनी अधिक याद
और बहुत दिनों के बाद एहसास हुआ कि, मैं अभी बच्चा हूँ, मुझे ज़िद करना नहीं आता।
जान बूझकर चलता रहा नाक की सीध में,
जैसे कुछ न देखने की खब्त सवार हो। न देखा आयें-बायें-दायें, बस चलता रहा सीधे, न देखा पलट कर किसी को, की शायद फिर किसी से बात हुई और अपनेपन के साथ कहीं फिर साथ न छूट जाये
जमीन में फैले इस कचरे के खजाने को, जिसे रौंदते हुए अभी मेरे पाँव गुजरे हैं, जो कभी तुम्हारी इक झलक के लिये हर पल रुका करते थे, आज बेतरतीब बढ़े जा रहे हैं, की रुकना भभी चाहा तो भी रुक न पाया, इन पाँवों को भी अब ठोकर मंजूर नहीं।
सच है अरसा बीत गया आसमान को उसके अगम ऊँचाइयों के साथ देखे और अपनी शून्यता में रमी गहन गहराइयाँ नापे,
बहूत दिनों तक टहला वीरान बाज़ार में जैसे अपने को भरमा रहा हूँ, बहूत दिनों से अपने आप से भी बात नहीं की, की फीर से कहीं “मेरे” अन्दर जो “तेरा” बाकी है उस्से मुलाकात न हो जाये।
इक जूनून सा सवार है कुछ न देखने का ,
नहीं बचाया “मैं” के लिए ज़रा सा भी वक्त जबकि मेरा “मैं” मुझसे मिलकर “उसके” बारे में बतियाना चाहता है।
अकेलापन होना अलग है और अकेले, परीवेश से अपने को पृथक कर लेना अलग, एक में टूटता विश्वास होता है और एक में अपने वजूद को बचाने की ज़िद और ज़िन्दगी के कुछ अनसुलझे सवालों की कुंठा, और ये अकेले रहने की ज़िद कुछ भी करवा सकती है, एैसा मानता था मैं (जबतक)
लेकिन आज मेरी ज़िद के इतने दिनों बाद, तड़के 4 बजे दबोच लिया गया मुझे उनकी यादों के एक भगोड़े अपराधी की तरह। जबकि मैं था निहत्था, अकेला और गलती से जाग गया था इतनी सुबह, भूल गया था की उसकी याद से ही तो जागा हूँ, और इस क्षण मेरी ज़िद का सहारा भी नहीं है मेरे पास, ये मेरा कमजोर क्षण था जहाँ मैं बिलकुल अकेला और असहाय था “उनकी” याद में।
ये मेरा “वो” भाग था जो मेरे “अब” से शायद अब भी मज़बूत है अन्दर कहीं और मेरी नइ नवेली ज़िद को ठेंगा दिखा के अब भी शेष बच गया है। उस “वो” को भूलने की चाह में ये “अब” का संघर्ष है ये शायद, खैर •••
इतनी तड़के की जबकि कोई काम नहीं होता, मैं बिस्तर पर बैठा हतप्रभ सा देख रहा था कमरे की छत को, जिसमें पुराने कुछ बेहतरीन पल अपने, सिनेमा के परदे की तरह छत पर चल रहे थे, और मैं यादों के कुँए में झाँक रहा था गहराई से, शायद बहुत नीचे उतर गया है पानी, आज तो सारी डोरीयाँ कम पड़ रही हैं और अब जब जागते हुए सुबह के 6 बज रहे हैं, एैसा लगता है कि बचपन की टाफी और कुलफी वाली क्षणिक ज़िद से ज्यादा मज़बूत नहीं है मेरी ये “वो” को भूला देने की “अब” की ज़िद।
लगता है आज बहुत दिनों बाद लौट आया हूँ बाज़ार से घर।
बहुत दिनों बाद कर रहा हूँ “मैं” से बातचीत
बहुत दिनों बाद लगी है मर्मान्तक सी प्यास
आज बहुत दिनों बाद आयी है “उनकी” इतनी अधिक याद
और बहुत दिनों के बाद एहसास हुआ कि, मैं अभी बच्चा हूँ, मुझे ज़िद करना नहीं आता।
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