किसी भी कला के पीछे किसी न किसी का तसव्वुर ज़रूर रहता है. पर क्या कभी तसव्वुर के बिना भी कुछ लिख पाना, कुछ उकेर पाना, कुछ गढ़ पाना मुमकिन है. आज मेरे अंदर का कलाकार इसी पशोपेश में है. मेरी नायिका का अंत हो चुका है. कलाकार देहांत को अंत नहीं मानता. फिर भी मैं कहता हूँ कि मेरी नायिका का अंत हो चुका. मतलब. आज मेरी यादों में भी उसका तसव्वुर बाकी नहीं.
तसव्वुर एक ऐसी अनुभूति, एक ऐसा एहसास है जो आपको सामने वाले की रूह से जोड़ता है. अनकहा सुनाई दे जाता है. आप उसकी हरकतों के साक्षी बन सकते हैं. उसे देख सकते है. उसे बयां कर सकते हैं.
अब सोचिये. सामने कलम और कागज़ पड़ी है. विचार हैं पर किसी का चेहरा सामने नहीं आता. आप उन विचारों को शरीर नहीं दे पा रहे. इस आतुरता का क्या करूं? कलाकार बेचैन है. उसे अपनी भावनाएँ तिरोहित करनी हैं. अंदर ठहरी तो विषाक्त हो जाएंगी. बाहर निकली तो बहेंगी, नाचती गाती कहीं वायु में विलीन होकर माहौल खुशनुमा बना जाएंगी.
पर क्या सिर्फ कुछ सृजित करने के लिए मैं इन बिन माँ की पीड़ाओं को वेश्या और इन आंसुओं को आवारा बना दूं...
कतई नहीं...
~~ Che
~~ Che
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