भीड़ में अपनी जगह बनता एक सामान्य आदमी, भीड़ में हस्तक्षेप करती एक आवाज़, मेरा हस्तक्षेप, महज हस्तक्षेप नहीं समाज की रूड़ीवादिताओं से रूठ जाने की खीज है. मैं अभिषेक तिवारी, IIT Bombay से स्नातक और परास्नातक, इलाहबाद उत्तर प्रदेश का रहने वाला, माँ और नौकरशाही का धुर समर्थक और "जग भ्रान्ति भरा मैं क्रांति भरा, जग से कैसी समता मेरी" पे चलने वाला
Wednesday, November 5, 2014
उन दिनों की बात
अंधियारी रातो में अक्सर डर लगा करता था..ये तब की बात है जब कसबे में बिजली हफ्ते दो हफ्ते में एक घंटे आती थी..और जब आती थी तो पूरे मोहल्ले में शोर मचता था. तिराहे वाला बल्ब शायद ही कभी जला हो. 3 महीने में कभी बिजली वाले आकर नया बल्ब लगाते थे जिसे भोलू अगले ही दिन गुलेल से तोड़ दिया करता था और बुजुर्गों की गाली और लौंडो की शाबाशी पाता था. हाँ तो मैं कह रहा था अंधियारी रातो से डर लगता था. मैं बहुत छोटा था और बचपन से ही अलग खटोले पे सोता था. हालांकि मेरे खटोले की ऊँचाई उतनी नहीं थी की एक चूहा भी बिना अटके निकल जाए लेकिन मुझे हमेशा लगता था की कोई सांप है जो पाए से लिपटा हुआ होगा या कोई भूत जो मेरी चादर खींच रहा है. हालांकि कहानी सुनना मुझे अच्छा लगता था लेकिन एक वजह डर भी थी जो मैं नानाजी से कहानी सुनाने को कहता..उनकी आवाज सुनके मेरा डर निकलता जाता और कहानी के बीच बीच में "हाँ" "हाँ" करते में सो जाता।
कही दूर से आती रेडियो के गाने की आवाज पे सोचता की जो रेडियो बजा रहा है शायद ये बड़ा होके हीरो बनेगा, मुझे रात को खिड़की से झांकते हुए चौकीदार की टोर्च से भी उतना डर लगता था जितना उसकी सीटी से या उसकी उसकी लाठी से. शायद रात होने के बाद रसोई में बर्तनों की खटपट मुझे ही सुनाई देती थी, और मैं किसी संभावित खतरे की आढ़ में चादर से आँख निकाले दरवाजे की ओर देखता रहता था. रोज भगवान् से प्रार्थना करता की भगवान् किसी के यहाँ चोरी न हो, किसी का मर्डर न हो..लेकिन इस प्रार्थना में "किसी" का मतलब मेरा खुद अपने परिवार से होता था. अंधियारी रात में हवा भी थोड़ी ठन्डी रहती थी ओर दूर दराज की आवाजें भी साफ़ सुनाई देती थी...ऐसे में दूर गली में कुत्ते का भोंकना मेरे लिए संकेत होता था की चोर ओर डाकू मोहल्ले में आ चुके हैं. मेरा दिल जोर से धड़कने लगता था..ओर जैसे जैसे वो आवाज मेरे घर के पास आती जाती मैं सिर्फ भगवान् को याद करता ओर उन्हें याद दिलाता की मैं कितना अच्छा हूँ, कभी झूट नहीं बोलता, बेईमानी नहीं करता, मंदिर जाता हूँ, बड़ो का आदर करता हूँ, गाली नहीं देता, हाँ वो मुकेश तो खूब गालियाँ देता है..फिर ये कुत्ते उसके घर के बाहर क्यों नहीं भौंक रहे. ये प्रार्थना तब तक चलती जब तक कुत्तों की आवाज़ अपनी गली से दूसरी गली तक न चली गयी हो. तभी अक्सर नानी मुझे देखने आतीं की ये सो रहा है या नहीं..मेरे माथे पर हाथ फेरती, ओर मेरे खटोले के साथ वाली छोटी खिड़की खोल देतीं..उस खिड़की से आती ठंडी हवा के बीच में मैं सो जाता. ये उन दिनों की बात है जब सुबह की चाय स्टोव पे ओर खाना चूल्हे में बनता था.
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