Wednesday, November 5, 2014

भूलने की भाषा

हकीकी में भी तुझे देखता ह
हर भाषा में तेरी भाषा नज़र आती हैं
“पानी की भाषा” में एक दरिया
मेरे बहुत पास से गुज़रा
“उड़ने की भाषा” में कई परिंदे
मेरे पास से उड़े
कई पत्ते हिले
पत्तों के हिलने में “सरसराने कि भाषा” थी
“महक की भाषा” में कई फूल मेरी
कल्पना में मेहके
हवा चली,
उसके चलने में “शीतलता की भाषा” थी
लगा जैसे तुम यहीं कहीं हो
“देह की भाषा” में अचानक कहीं से आती हुइ
“भूलने की भाषा” में कुछ न भूले जा सकने वाले किस्सों
को बुदबुदाती हुई
मेरी कल्पना में भी कितनी सजीव लागति हो तुम
अदृश्य सभी चीजों का बोध कराती हुई
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

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