Wednesday, November 12, 2014

दउर सुरू हो जाला

दउर सुरू हो जाला


सरेख मन से
गते-गते सँसरे में
करेज कसकेला।
बउराइल अकुलाहट
उफनात
जिदिआ के
दउर लगावे में
इचिको ना थथमे।
फरीछ होते
जुड़ाइल
किरिन संगे चुप्पी सधले
सोना नियर दिन में
दउर सुरू हो जाला।
दूरी नापत
गहिर चाल से, धीरज बन्हले
नया बसेरा खोजत
जोत जगावत
दरद पी के
मन मुसक उठेला।
एही जिनगी के
निखरल खुलल दरपन बनेला
तबे नू
सरेख मन से।
गते-गते सँसरे में
करेज कसकेला।

Saturday, November 8, 2014

तुम्हारे नाम के सिवा

क्लास के उस पिछली बेंच पर  तुम्हारा नाम लिख कर  तोडा करता था मैं अपनी कलम  और उमीदों के काफिलो से गुजारिश करता  की पास आके तुम कहोगी  "Take My Pen"  पर उम्मीदे भी मेरी कलम की तरह रोज टूटती रही और मैं कभी कुछ ना लिख पाया तुम्हारे नाम के सिवा

मुझे शायरी का शौक नहीं था

मुझे शायरी का शौक नहीं था, ये कालेज के बाद मुह के भाप से कांच साफ़ करने कि रिवायत है, और अब भी मिज़ाज़ों वाले पंक्तियाँ पढ़ने का शौक-चस्का-लत-तलब ऐसा ही है जैसे सिगरेट के आखिरी काश का.
मुझे शायरी कि बिलकुल समझ नहीं लेकिन es सालों बरसों में इस तलब चस्के ने सहेज संवार के जीना जरुर सिखा दिया है, मैं एकाकीपन में भी ढेरों रंग भर लेता हूँ, पंक्तिया मेरे लिए उद्गम वेग हैं, शायरी पढ़ना ऐसा है जैसे मेरे बचपन के दिनों कि हैंडराइटिंग, मैं थामना रुकना नहीं चाहता, मैं हर दिन अपनी जिंदगी के गिनता रहता हूँ, हाइवे किनारे गाडी कड़ी करके, कच्चे रास्तों पर दूर तक चिड़ियों का पीछा करता रहता हूँ, चींटियों कि बस्ती मोहल्ले को बनते संवारते देखता हूँ, छुट्टियों के दिन पेड़ों पर चिड़ियों कि आवाज़ पहचानता रहता हूँ, कोहरे में तस्वीर बनता रहता हूँ, कभी उम्र तो कभी कपडे तो कभी चेहरे कि mamle में gaccha kha जाता हूँ, तस्वीर अब तक तो बनी नहीं है, लेकिन haan कोहरे में हाथ और आँख अक्सर भीग जाया करते हैं लेकिन सुकून कि बात है कि हाथ और आँख कि dosti नहीं टूटती, आँख पूछने हाथ जरुर जाता है, दोस्त हमेशा साथ ही रहते हैं हमहि नै पहचान पते 

दुबारी के कोनों में तेरी मेरी सांस घुले

जैसे बारिश का पानी धीरे धीरे मिटटी में घुले,
लाल सूरज डूबते हुए धरती से मिले,
पुरवाई हवा से नीम का पेड़ हिले,
कांटो के बीच कोई गुलाब खिले,
जब बढ़ जायें तेरे मेरे दरम्यान गिले
दुबारी के कोनों में तेरी मेरी सांस घुले

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

एक क्रन्तिकारी की जेल डायरी से साभार 

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग से निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी निश्छलता को आँका,
जग भ्राँति भरा, मैं क्राँति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदु-गान दिए,
व्यवहार-कुशल जग में कवि के
वरदान किसी कब याद रहे,
शशि को दी रजत-निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुरुता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

किस रवि की स्वर्णिम-किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे, मैं मौन रहा, जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

~~ जयप्रकाश नारायण 

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ... उस से आँखें लगीं तो ख्वाब कहाँ

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख्वाब कहाँ
बात प्रेम पर हो रही थी कि प्रेम क्या है? What does one do when in love? और शायरों और कवियों का तो आपको पता ही है कि सूरज मद्धम कर देते हैं और चाँद में आग लगा देते हैं। जबकि ऐसा होता नहीं।
बात का नतीजा ये था कि प्रेम में व्यक्ति ख़ुश रहता है, फ़िक्रमंद नहीं होता वो। प्रेम बाहर से जंक फ़ूड ख़रीद कर लाता है और प्रेम सोफ़े पर बैठकर घंटों बेबात की बात करता है। प्रेम दिन में डिनर करता है और रात को टीवी देखता है। टीवी पर क्या देखता है ये ग़ैरज़रूरी है, टीवी का चलना और अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में हमला कर दिया इन सब से बेख़बर होता है प्रेम। लेकिन प्रेम संवेदना नहीं खोता। प्रेम आतंकवाद की ख़बर शायद न पढ़ता हो पर पता चलने पर दुःखी ज़रूर होता है।
प्रेम क्लास भी करता है, वो सारे इवेंट का हिस्सा भी होता है और प्रेम दिन भर थकता भी है। और शाम को प्रेम तुम्हारे दोस्तों के साथ हँसी मज़ाक़ भी करता है। प्रेम प्रेम भी करता है, स्नेहिल स्पर्श और मीठा चुंबन भी देता है। प्रेम में प्रेम पहली चीज नहीं होती। प्रेम साथ होना है, प्रेम बातें करना है और प्रेम रात के एक बजे हेलमेट लेकर खड़ा होना भी है, "चलो बाहर चलो, कहीं घूमने चलते हैं!"
प्रेम को मतलब नहीं होता कि वो जगह कौन सी है। कभी प्रेम बाईक पर आगे होता है, कभी पीछे। प्रेम कानों में गुनगुनाता है और ओंठों को हेलमेट के क़रीब लाकर कहता है, "इंडिया गेट चलो!" लेकिन रास्ते में कहता है, "मुझे निज़ामुद्दीन में पराठे खाने है।" प्रेम चौंकाता है, प्रेम थकाता है पर थकता नहीं।
प्रेम डाँटता भी है, डाँट खाता भी है, छुपता भी है, छुपाता भी है, डरता भी है और भाई से पंगे भी लेता है। प्रेम पवित्र है। प्रेम न नमाज अदा करता है ना घंटियाँ बजाता है। प्रेम नमाज भी अदा करता है और घंटियाँ भी बजाता है। प्रेम के लिए भौतिक चीजें गौण हैं और अदृश्य चीजों का आकार है। प्रेम छिपाता है प्रेम से, प्रेम बताता है प्रेम से। प्रेम हँसता है, प्रेम रोता है। प्रेम जटिल है, प्रेम सरल है। प्रेम ठोस की तरह अडिग और पानी जैसे बहाव वाला, तरल है।
मीर कहते हैं कि प्रेम में इंतज़ार करना नहीं आता, प्रेम सोता हुआ भी जगता रहता है। प्रेम में जो घटित होता है वही स्वप्न है। प्रेम स्वप्न का अगला पड़ाव है और प्रेम सपने से ज्यादा हसीं और वास्तविकता से ज्यादा खूबसूरत है।

मैं कुछ कहूँ

मैं कुछ कहूँ,
फिर आप मेरे दिल कि बात समझे,
फिर तो बहुत देर लगेगी !
कहने सुनने कि ये बात नहीं है,
दिल कि बात है ये,
कोई काम नहीं है,
खुदा से मैं कुछ नहीं कहता,
पर वो दिल कि बात समझता है,
फिर आप क्यों नहीं समझते हैं !

मैं कुछ करूँ,
फिर आप ऐतबार करें,
फिर तो बहुत देर लगेगी !

कोई इम्तहान दे सकता हूँ,
कुछ भी हार सकता हूँ,
आपका भरोसा पा सकता हूँ,
पर वक्त जब लेगा इम्तहान,
और नाकाम हो गए हम,
फिर आप क्यों इम्तहान लेते हैं !

मैं हंस पडूँ,
और आप सब ठीक समझे,
फिर तो देर ही लगेगी !

~~merA Blog

आँखों में आँसूं थे और हाथ में एक कागज़, माँ और IAS की तैयारी

कल मेरी माँ ने फोन किया रात को बहुत हडबडाते हुए. मैंने पुछा क्या हुआ?

तो उसने कहा कि तैयारी कैसी चल रही है?

मैंने कहा बस लगे हुए हैं...बाकी तो भगवन जाने.

माँ ने बड़े मासूम भाव से कहा: भारत के प्रधानमंत्री वगेरा के बारे में तो पढ़ लिया है न?

मैंने पूछा ऐसा क्यूँ पूछ रही हो?

तो उसने कहा: अच्छा बताओ तो भारत का प्रथम प्रधानमंत्री कौन था?

मुझे हंसी आ गयी.

तो माँ ने कहा कि करोरपति में ये सवाल आया था माँ ने मुझे बताने के लिए अपनी डायरी में लिख लिया था कि कहीं मैं मिस न कर दूं ये सवाल.

मैं माँ को ये समझा न सका कि यह एक्जाम कितना बड़ा है और यह सवाल कितना छोटा.

लेकिन मैं यह समझ गया कि प्रेम और केयर योगदान नहीं भावना से नापी जाती है. 

आँखों में आँसूं थे और हाथ में एक कागज़ "The Legacy of Nehru".

Thursday, November 6, 2014

कैसे जीवन को आसान किया जाता है?

प्रेम और खुद्दारी की खींचातानी में
कैसे जीवन को आसान किया जाता है?

अश्रुधार के सम्मुख कैसे सुदृढ होकर
अपने मोती का सम्मान किया जाता है?

ताजमहल को मलबों में परिवर्तित करके
कैसे इस दिल को शमशान किया जाता है?

तिरस्कार का तीक्ष्ण हलाहल भीतर रखकर
कैसे मानव को भगवान किया जाता है?

विगत पराजय का मूल्यांकन शेष रहे तो
कैसे भविष्य का तब संधान किया जाता है?

~~ Che

Wednesday, November 5, 2014

ऐसे ही


सुबह से ही आज एक अजीब सी ख़ुशी है, वैसे तो खालीपन सा है आजकल, शायद उसके चले जाने का गम है लेकिन जब आत्मविवेचन करता  हूँ तो अपने को ही गुनहगार पता हूँ
सही भी है, उसकी यादों का  भगोड़ा अपराधी जो हूँ, कभी कभी चीज़ों का बिखर जाना अछा और सुकून देता है,  जीवन में क्या क्या पा लिया था एहसास होता है, और जब चीज़ें हाथ में रेत की तरह फिसलती हैं तो एक अजीब सी तिस होती है, 
खैर जब अपने गुनाहों का बोध होता है तो गम कुछ काम हो जाता है, सच ही है, पछतावा काफी कुछ सीखा देता है, 
पेशे से हूँ तो एक इंजीनियर लेकिन दिल से एक लेखक और कवि हूँ, सच पूछिये तो लिखना उसी को देख कर आया, अपने जीवन की जो कुछ बेहतरीन नज़्में है वो उसी के लिए लिखी हैं, आज ३ महीने होने आये कुछ नहीं लिखा, एक खली पण सा दे गयी वो, ऐसा लगता है मनो जीवन की नायिका ही मर चुकी है. 

हमेशा से कहती थी, आप अजीब और बहुत अच्छे इंसान है, माता जी भी यही कहती थी, माताजी के कहने का कभी कोई असर नहीं पड़ा लेकिन अब जब वो जा रही है, एहसास होता है की कितना अजीब हूँ, अच्छा हूँ या नहीं वो शायद वही बता पाये, 
अंतिम मुलाकात हुई दिवाली की दूसरी रोज़, ऐसा लग रहा था जैसे बस वक़्त थम जाये और महसूस करता रहूँ, कहने को तो १० मं समय लेके आई थी, लग रहा था जैसे चीज़ों से भाग रही है, लेकिन जब चीज़ें दिल से जुडी होती हैं तो उनसे भागना उतना ही मुस्किल होता है, १० मं का वो समय एक घंटे २५ मं में कब बदल गया पता ही नहीं चला,
हाँ तो मैं गुनहगार हूँ, अंतर मन में झाँका तो पाया की हूँ भी और बदल भी नहीं सकता, बस यही बताना था उसको, और यह भी की, अपने इस ऐब के अंदर भी शिद्दत से मुहब्बत की है, था मैं थोड़ा अजीब, गलतियों से भरा इंसान और उसकी एहमियत सिर्फ ये नहीं थी की मुहब्बत थी उससे बल्कि इसलिए भी थी की उसने जीवन का वो पहलु से रूबरू कराया जो शायद उसके न आने से नहीं देख पता, 

आप दुनिया में सबके सामने एक महान, बलवान आदमी हो सकते हैं लेकिन जिससे दिल के रिश्ते होते हैं उनके सामने आपको ये सब भूलना पड़ेगा, भावनाओं का भी यही है, जो महसूस करते हैं है उसको दिखने में हर्ज़ ही क्या है? आखिर भावनाएं भी उसी क लिए हैं न. 

ये तो नहीं जनता की किस्मत में क्या है, लेकिन उसके जाने से एक खलीपन सा घर कर गया है जीवन में, उसकी नादानी, बच्चों सी हरकत सब जैसे एक सिनेमा के दृश्य जैसे आँखों के सामने आज भी वही रंगीनियाँ लिए हैं, यूँ तो साल भर पुरानी बात है लेकिन मनो लगता है जैसे अभी कुछ मिनटों पहले की बात हो 

"आप मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं न" ..... से ...... "अपना ख्याल रखियेगा"  तक का सफर सचमुच बहुत ही डरावना है और लगता है जैसे मैं आज भी बच्चों से ज़िद और बच्चों सा डरता हूँ :) 

~~ अजेय 

मैं, तुम और हम

26 मई की कुछ भूली बिसरी याद 


जीवन से लड़ते-लड़ते
बीत चुके हैं कई दिन महीने साल
जीवन के इस कुरक्षेत्र में लड़ते लड़ते
खत्म हो चुके हैं मेरे तरकश के तीर
टूट चुकी है मेरी तलवार
टूट चूका है कवच
अपना अंतिम प्रहार भी कर चूका मैं
नयनो से अश्रु और देह से रक्त की धार निकल रही है
,अभिमन्यु की मानिंद उठा लिया है पहिया
इस समर का चक्रव्यूह भेदने
और अंजाम सोचे बिना कूद पड़ा हूँ रण में
इन सबके बीच सोचता हूँ की
कहाँ है वो कृष्ण जिसने मुझे
बिना कुछ सोचे समझे युद्ध में कूद जाने की सलाह दी थी
आत्मविवेचन किया तो पाया की कोई कृष्ण
तो था ही नहीं वो बस “मैं” और “तुम” को “हम” बनाने की चाह में
सबकुछ हारता हुआ देख रहा हूँ
और बारिश में सिगरेट हाथ में लिए
शून्यता में रमे आकाश को निहारते हुए
मैं खोजता हूँ खुद को
अकेले इस जीवन को
अपने समूचे अस्तित्व को खोते हुए
तुम्हारे बिना जीते हुए
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

कब वो जाहिर होगा

(उसके लिए जो कभी कुछ नहीं कहती ☺)


कब वो जाहिर होगा और हैरान करेगा मुझे
सारी मुश्किलों से आजाद कर देगा मुझे
जान फुकेगा वो मुहब्बत के जिस्म में मेरे
अपने सामने बेजान कर देगा मुझे
एक नामौजूदगी रह जायेगी चारों तरफ
घीरे घीरे इस कदर सुनसान कर देगा मुझे
बिन कुछ कहे सब कह जायेगा
इस तरह बे पीर कर जायेगा मुझे
छूट जायेंगी उसकी यादों की चाकरी मुझसे
किसी दिन अफ़सर-ए-खास कर जायेगा मुझे
खिलेंगे तब मुहब्बत के फूल गुलशन में
देखते ही देखते वीरान कर जायेगा मुझे
पीर = आवाज़
चाकरी = नौकर जैसे काम करना
~~ अभिषेक तिवारी ‘अजेय’

जीवन को एक नया आयाम देती हो तुम....

अंधकार में जैसे जला हो कोई दीपक
और उसके इर्द गिर्द करवट बदलता अँधेरा
अपने नए अस्तित्व को पहचानता
अपना सर्वस्व त्याग कर
एक नयी अनुभूति करता
वैसे ही है तुम्हारे बाँहों का घेरा
जिसके दायरे में आके मुस्कुरा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा
नए आयाम मिलते हैं जीवन को मेरे
लगता है जैसे दुःख, दुःख नहीं रहे अब मेरे
एक नया एहसास कराती हो तुम
तुमने नहीं जाना, सहसा मुझमे कितनी उत्तर गयी हो तुम
कोई सुन्दर सा अभिशाप जैसे वर लिया
हाँ !! सच है
मेरे जीवन को है तुमने एक नया नाम दिया
ये कलम, जो पहले शांत थी
इसको पकड़ कर अब लिखना भी सिख लिया
हर पल एक नया एहसास कराती हो तुम
मुझमे एक नव चेतना जागती हो तुम
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ

एक कविता लोकनायक श्री जय प्रकाश नारायण, शहीद भगत सिंह को समर्पित

कर्णधार बन हाथ में लगाम लेना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
भेद सर उठा रहा
मनुष्य को मिटा रहा
दे बदल नसीब, गरीब का सलाम लूँ
अपने जीवन को त्याग का एक नाम देना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
स्वतन्त्रता ये नहीं की एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फ़क़ीर हो
वर्ग की तन तानी बढ़ रही
लगता जैसे मुझको पुकार रही
अन्याय का बस एक और इशारा चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
चाहते थक कर सब कमरे का एक शांत कोना
अब न सेह सकेगी वृद्धा भूमि सब का भार ढोना
न्याय के इस आगाज़ को चिंगारी देना चाहता हूँ
जीर्ण जग में फिर से नयी दुनिया बसाना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
सबमे है एक अर्जुन
पर रण से डरते हैं सब
लेकिन इस अन्याय के विरुद्ध एक और महाभारत होना जरुरी है
केशव के आवाज़ बन
हर एक अर्जुन को जगाऊँ
ऐसा एक स्वर बनना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
मंद गति से बहने वाली
अदृश्य हो पास ही रहती
जनता के दुःख है जैसे हवा
मंद हवा को गर्म सांसों में बदलना होगा
अदृश्य इस हवा को बवंडर बनाना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
छा गया ताम का अँधेरा
मनुष्य ही मनुष्य को डरा रहा
अन्याय का अँधेरा अब छाँटना चाहिए
इस अँधेरे में प्रकाश का एक दीप बनना चाहता हूँ
सूरज जो छांट दे इस अँधेरे को वो सूरज बनना चाहता हूँ
क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
चाहता हूँ बांधना गतिविधि समय की
भुलाना चाहता हूँ चिंता प्रलय की
आग पानी में लगाना चाहता हूँ
क्रान्ति के गीत गाना चाहता हूँ
व्यंग्य करता है मुझ पर अब मनुजता पर मनुज का ये छुद्र जीवन
हँस रहा मुझ पर जवानी की उमंगों का लड़कपन
जवानी के इस जोश में किसी ने कहा था -
“सत्ता के बहरों को क्रांति के विस्फोट सुनना चाहता हूँ..
इंक़लाब के नारे लगा के क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
हाँ मैं भगत सिंह हूँ क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ “
देश लज्जित हो रहा देख के इस नरक की लखर विषमता
आज सुख भी रो रहा देख कर दुःख की विवशता
रोती जनता को देख कर किसी ने कहा था तब -
“इंदिरा का आसान डगमगाना चाहता हूँ.…
आने वाली जनता के लिए सिंहासन खली करना चाहता हूँ..
जनता के अवसादों की कहानी सुन्ना और समझना चाहता हूँ
हाँ मैं JP हूँ, क्रांति के गीत गाना चाहता हूँ
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

ज़िद्दी लड़के- 1

अरसा बीत गया सुने आम की सबसे निचली डाली पर बैठी कोयल की कूक,
जान बूझकर चलता रहा नाक की सीध में,
जैसे कुछ न देखने की खब्त सवार हो। न देखा आयें-बायें-दायें, बस चलता रहा सीधे, न देखा पलट कर किसी को, की शायद फिर किसी से बात हुई और अपनेपन के साथ कहीं फिर साथ न छूट जाये
जमीन में फैले इस कचरे के खजाने को, जिसे रौंदते हुए अभी मेरे पाँव गुजरे हैं, जो कभी तुम्हारी इक झलक के लिये हर पल रुका करते थे, आज बेतरतीब बढ़े जा रहे हैं, की रुकना भभी चाहा तो भी रुक न पाया, इन पाँवों को भी अब ठोकर मंजूर नहीं।
सच है अरसा बीत गया आसमान को उसके अगम ऊँचाइयों के साथ देखे और अपनी शून्यता में रमी गहन गहराइयाँ नापे,
बहूत दिनों तक टहला वीरान बाज़ार में जैसे अपने को भरमा रहा हूँ, बहूत दिनों से अपने आप से भी बात नहीं की, की फीर से कहीं “मेरे” अन्दर जो “तेरा” बाकी है उस्से मुलाकात न हो जाये।
इक जूनून सा सवार है कुछ न देखने का ,
नहीं बचाया “मैं” के लिए ज़रा सा भी वक्त जबकि मेरा “मैं” मुझसे मिलकर “उसके” बारे में बतियाना चाहता है।
अकेलापन होना अलग है और अकेले, परीवेश से अपने को पृथक कर लेना अलग, एक में टूटता विश्वास होता है और एक में अपने वजूद को बचाने की ज़िद और ज़िन्दगी के कुछ अनसुलझे सवालों की कुंठा, और ये अकेले रहने की ज़िद कुछ भी करवा सकती है, एैसा मानता था मैं (जबतक)
लेकिन आज मेरी ज़िद के इतने दिनों बाद, तड़के 4 बजे दबोच लिया गया मुझे उनकी यादों के एक भगोड़े अपराधी की तरह। जबकि मैं था निहत्था, अकेला और गलती से जाग गया था इतनी सुबह, भूल गया था की उसकी याद से ही तो जागा हूँ, और इस क्षण मेरी ज़िद का सहारा भी नहीं है मेरे पास, ये मेरा कमजोर क्षण था जहाँ मैं बिलकुल अकेला और असहाय था “उनकी” याद में।
ये मेरा “वो” भाग था जो मेरे “अब” से शायद अब भी मज़बूत है अन्दर कहीं और मेरी नइ नवेली ज़िद को ठेंगा दिखा के अब भी शेष बच गया है। उस “वो” को भूलने की चाह में ये “अब” का संघर्ष है ये शायद, खैर •••
इतनी तड़के की जबकि कोई काम नहीं होता, मैं बिस्तर पर बैठा हतप्रभ सा देख रहा था कमरे की छत को, जिसमें पुराने कुछ बेहतरीन पल अपने, सिनेमा के परदे की तरह छत पर चल रहे थे, और मैं यादों के कुँए में झाँक रहा था गहराई से, शायद बहुत नीचे उतर गया है पानी, आज तो सारी डोरीयाँ कम पड़ रही हैं और अब जब जागते हुए सुबह के 6 बज रहे हैं, एैसा लगता है कि बचपन की टाफी और कुलफी वाली क्षणिक ज़िद से ज्यादा मज़बूत नहीं है मेरी ये “वो” को भूला देने की “अब” की ज़िद।
लगता है आज बहुत दिनों बाद लौट आया हूँ बाज़ार से घर।
बहुत दिनों बाद कर रहा हूँ “मैं” से बातचीत
बहुत दिनों बाद लगी है मर्मान्तक सी प्यास
आज बहुत दिनों बाद आयी है “उनकी” इतनी अधिक याद
और बहुत दिनों के बाद एहसास हुआ कि, मैं अभी बच्चा हूँ, मुझे ज़िद करना नहीं आता।
~~ अभिषेक तिवारी ‘अजेय’

और ये सिर्फ़ तुम्हारे लिए…

जो कुछ था — वह था , ‘नहीं होने’ जैसा
जो कुछ नहीं था- उस की खबर ‘होने’ से लगी
हालांकि होना कुछ अधिक ठोस था -
पर न होने ने उसका अधिकांश छिपा रखा था
और तब मैं समझा
निधन
नामक एक भयानक शब्द का असल मायना

भूलने की भाषा

हकीकी में भी तुझे देखता ह
हर भाषा में तेरी भाषा नज़र आती हैं
“पानी की भाषा” में एक दरिया
मेरे बहुत पास से गुज़रा
“उड़ने की भाषा” में कई परिंदे
मेरे पास से उड़े
कई पत्ते हिले
पत्तों के हिलने में “सरसराने कि भाषा” थी
“महक की भाषा” में कई फूल मेरी
कल्पना में मेहके
हवा चली,
उसके चलने में “शीतलता की भाषा” थी
लगा जैसे तुम यहीं कहीं हो
“देह की भाषा” में अचानक कहीं से आती हुइ
“भूलने की भाषा” में कुछ न भूले जा सकने वाले किस्सों
को बुदबुदाती हुई
मेरी कल्पना में भी कितनी सजीव लागति हो तुम
अदृश्य सभी चीजों का बोध कराती हुई
~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

शायद कभी कह नहीं पाउँगा

इस सेमेस्टर किसी खास के लिये ये कविता लिखि थी, आज के रात कि मन कि अभिव्यक्ति, कभी कभी लगता है कि बस वक़्त रुक सा जाये और आप बस महसूस करते रहो,
‘प्रिया’ लिखकर
मैं नीचे लिख दूँ नाम तुम्हारा
कुछ जगह बीच में छोड़ दूँ
नीचे लिख दूँ-
‘सदा तुम्हारा’
लिखा बीच में क्या
यह तुमको पढ़ना है
कागज़ पर मन की परिभाषा का
अर्थ समझना है
जो भी अर्थ निकलोगी तुम
वह मुझको स्वीकार है
झुके नयन, मौन अधर या कोरा कागज़
अर्थ सभी का प्यार है।
तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है
प्रेम पुष्प को जिस आंसू से, कल तक मैं सींचा करता था
उसको ही मधुपान समझकर, पीना मैंने सीख लिया है

तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

नहीं थका करते थे मेरे, अधर तुम्हारी बातें करते
एकाकीपन में अधरो को, सीना मैंने सीख लिया है

तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

बेतरतीब जिया करता था, साये में तेरे आँचल के
किन्तु अब सुनियोजित ढंग से, जीना मैंने सीख लिया है

तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

याद जो तेरी सोने मुझे नहीं देती थी,
याद जो तेरी हर सुबह जगाया करती थी
उन यादों को, सु-स्वपन समझ कर
भूलना मैंने सीख लिया है
तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

आशिकों के देख हालात, था मैं उलझन में
बना रहूँ गुमनाम, या रहूँ खबर में
गुमनामी में, जीवन का मकसद पाना मैंने सीख लिया है
तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फुला सा नहीं होता
बेवफाई को तेरी मज़बूरी समझना सीख लिया हैं
तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

जब पलकें झपका के, नभ में तारे हस्ते थे
मुझे याद तुम्हारी आती थी,
तुम राह दिखती थी मंजिल की,
जीवन सुहाना लगता था,
लेकिन अब आँखों से लाचार, इन दृश्यों से आँखे मूंदना सीख लिया हैं
तेरे बाद न जाने कैसे, जीना मैंने सीख लिया है

~~ अभिषेक तिवारी ‘ अजेय ‘

किसी खास के लिए..... जिसके साथ कभी कुछ सपने देखे थे


आज उसकी शादी है सुबह के 5 बज रहे हैं।

 मैं सड़क के आख़िरी कोने से दूसरी मंज़िल की उस खिड़की पे बत्तियाँ जलने का इंतेज़ार कर रहा हूँ। पर आज शायद वो देर से उठेगी। ऑफिस जाने के लिए उठती थी, आज क्यूँ उठेगी । उसे तो मालूम भी नही की मैं यहाँ खड़ा हूँ। 
 कुछ साल भर पहले उसने अपने घर पे हमारे रिश्ते की बात की थी। हंगामा हुआ था बहुत। कुछ रोज़ ऑफिस भी नही आई थी वो।जब मुलाकात हुई पहली बार तो हिचक़ियों और आसुओं के बीच दो चार शब्द ही निकले होंगे। कान सुनना तो चाह रहे थे पर आँखें देखने मे व्यस्त थी, वो जितना बोल पाती मैं उससे ज़्यादा सुन चुका था। रोज़ मिलते थे उसके बाद। सुबह मैं यूँ ही यहाँ आकर खड़ा रहता, शाम घर तक साथ आता। मालूम नही था आगे क्या होना है, बस जानता था जितना वक़्त साथ दे सकूँ देना था। समझाता था, बहलाता था की रोने से कुछ नही होगा,वो और रोती थी। 
 इक रोज़ पूछा मैने की भाग चलें? रोई नही, उस रोज़ खामोश थी पर रोई नही। उसके बाद मैं भागने के नये तरीके बताता, वो डाँट्ती, कभी हँसती; कभी हंसते हंसते रोने लगती। मैं रोज़ उससे कहता की देखना एक दिन ये सारी बातें याद करके हम दोनो मुस्कुराएँगे। वो नही मानती। 
आज उसकी शादी है। रात के 10 बज रहे हैं। काफ़ी लोग हैं। सब के चेहरे खुश हैं। मैं खामोश हूँ। कुछ कहना चाहता हूँ उससे पर शब्द नही मिल रहे। स्टेज पर वो खड़ी हुई है, आज मुस्कुरा रही है। इस साल भर मे उसकी आँखें जितनी रोई थी आज उससे ज़्यादा मुस्कुरा रही हैं। मैने उससे कहा "शादी मुबारक हो!" हैरत से देखा उसने मेरी तरफ और फिर मुस्कुराई। मैने हँसके कहा उससे की काफ़ी खुश लग रही हो। आँखों और होठों दोनो पे हँसी थी उसके जब उसने कहा "खुशी क्यूँ ना हो? आज हमारी शादी है!"

Anjan
किसी भी कला के पीछे किसी न किसी का तसव्वुर ज़रूर रहता है. पर क्या कभी तसव्वुर के बिना भी कुछ लिख पाना, कुछ उकेर पाना, कुछ गढ़ पाना मुमकिन है. आज मेरे अंदर का कलाकार इसी पशोपेश में है. मेरी नायिका का अंत हो चुका है. कलाकार देहांत को अंत नहीं मानता. फिर भी मैं कहता हूँ कि मेरी नायिका का अंत हो चुका. मतलब. आज मेरी यादों में भी उसका तसव्वुर बाकी नहीं. तसव्वुर एक ऐसी अनुभूति, एक ऐसा एहसास है जो आपको सामने वाले की रूह से जोड़ता है. अनकहा सुनाई दे जाता है. आप उसकी हरकतों के साक्षी बन सकते हैं. उसे देख सकते है. उसे बयां कर सकते हैं. अब सोचिये. सामने कलम और कागज़ पड़ी है. विचार हैं पर किसी का चेहरा सामने नहीं आता. आप उन विचारों को शरीर नहीं दे पा रहे. इस आतुरता का क्या करूं? कलाकार बेचैन है. उसे अपनी भावनाएँ तिरोहित करनी हैं. अंदर ठहरी तो विषाक्त हो जाएंगी. बाहर निकली तो बहेंगी, नाचती गाती कहीं वायु में विलीन होकर माहौल खुशनुमा बना जाएंगी. पर क्या सिर्फ कुछ सृजित करने के लिए मैं इन बिन माँ की पीड़ाओं को वेश्या और इन आंसुओं को आवारा बना दूं... कतई नहीं...

~~ Che

उन दिनों की बात

अंधियारी रातो में अक्सर डर लगा करता था..ये तब की बात है जब कसबे में बिजली हफ्ते दो हफ्ते में एक घंटे आती थी..और जब आती थी तो पूरे मोहल्ले में शोर मचता था. तिराहे वाला बल्ब शायद ही कभी जला हो. 3 महीने में कभी बिजली वाले आकर नया बल्ब लगाते थे जिसे भोलू अगले ही दिन गुलेल से तोड़ दिया करता था और बुजुर्गों की गाली और लौंडो की शाबाशी पाता था. हाँ तो मैं कह रहा था अंधियारी रातो से डर लगता था. मैं बहुत छोटा था और बचपन से ही अलग खटोले पे सोता था. हालांकि मेरे खटोले की ऊँचाई उतनी नहीं थी की एक चूहा भी बिना अटके निकल जाए लेकिन मुझे हमेशा लगता था की कोई सांप है जो पाए से लिपटा हुआ होगा या कोई भूत जो मेरी चादर खींच रहा है. हालांकि कहानी सुनना मुझे अच्छा लगता था लेकिन एक वजह डर भी थी जो मैं नानाजी से कहानी सुनाने को कहता..उनकी आवाज सुनके मेरा डर निकलता जाता और कहानी के बीच बीच में "हाँ" "हाँ" करते में सो जाता। कही दूर से आती रेडियो के गाने की आवाज पे सोचता की जो रेडियो बजा रहा है शायद ये बड़ा होके हीरो बनेगा, मुझे रात को खिड़की से झांकते हुए चौकीदार की टोर्च से भी उतना डर लगता था जितना उसकी सीटी से या उसकी उसकी लाठी से. शायद रात होने के बाद रसोई में बर्तनों की खटपट मुझे ही सुनाई देती थी, और मैं किसी संभावित खतरे की आढ़ में चादर से आँख निकाले दरवाजे की ओर देखता रहता था. रोज भगवान् से प्रार्थना करता की भगवान् किसी के यहाँ चोरी न हो, किसी का मर्डर न हो..लेकिन इस प्रार्थना में "किसी" का मतलब मेरा खुद अपने परिवार से होता था. अंधियारी रात में हवा भी थोड़ी ठन्डी रहती थी ओर दूर दराज की आवाजें भी साफ़ सुनाई देती थी...ऐसे में दूर गली में कुत्ते का भोंकना मेरे लिए संकेत होता था की चोर ओर डाकू मोहल्ले में आ चुके हैं. मेरा दिल जोर से धड़कने लगता था..ओर जैसे जैसे वो आवाज मेरे घर के पास आती जाती मैं सिर्फ भगवान् को याद करता ओर उन्हें याद दिलाता की मैं कितना अच्छा हूँ, कभी झूट नहीं बोलता, बेईमानी नहीं करता, मंदिर जाता हूँ, बड़ो का आदर करता हूँ, गाली नहीं देता, हाँ वो मुकेश तो खूब गालियाँ देता है..फिर ये कुत्ते उसके घर के बाहर क्यों नहीं भौंक रहे. ये प्रार्थना तब तक चलती जब तक कुत्तों की आवाज़ अपनी गली से दूसरी गली तक न चली गयी हो. तभी अक्सर नानी मुझे देखने आतीं की ये सो रहा है या नहीं..मेरे माथे पर हाथ फेरती, ओर मेरे खटोले के साथ वाली छोटी खिड़की खोल देतीं..उस खिड़की से आती ठंडी हवा के बीच में मैं सो जाता. ये उन दिनों की बात है जब सुबह की चाय स्टोव पे ओर खाना चूल्हे में बनता था.